उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर से 17 किलोमीटर दूर स्थित एक ग्राम की यह सच्ची कहानी है। इस गाँव में अधिकतर मजदूर और लघु किसान निवास करते हैं, जिनका मुख्य पेशा मजदूरी करना, खेती करना और छोटे-मोटे काम करके अपने परिवार की परवरिश करना है। गाँवों में शिक्षा का अभाव है; बहुत कम लोग पढ़े-लिखे हैं, और जो पढ़े-लिखे हैं, वह भी नाम मात्र के हैं। तकनीकी शिक्षा का भी अभाव है। ग्राम में शिक्षा की उचित व्यवस्था न होने के कारण गाँव की शिक्षा दर भी बहुत कम है।
गाँव में कुछ सीमांत या बड़े किसान भी हैं, जिनकी संख्या बहुत कम है। वे अपनी जमीन पर या तो खुद खेती करते हैं या लघु किसानों या मजदूरों को जमीन बटाई पर देते हैं और उसमें जो फसल होती है, उसका बँटवारा कर लेते हैं। जो लोग बटाई पर खेती करते हैं, वे फसल की उगाई से लेकर फसल काटने तक की समस्त जिम्मेदारी उठाते हैं। जब फसल हो जाती है, तो उसका आधा हिस्सा जमीन के मालिक यानी किसान को मिलता है और बाकी का हिस्सा मजदूर को।
इस गाँव में एक ऐसा ही गरीब मजदूर का परिवार था, जिसमें एक माँ, उसके चार पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। चार पुत्रों में से दो का एवं एक पुत्री का विवाह हो चुका था, जबकि दो पुत्र एवं एक पुत्री अविवाहित थे। परिवार मेहनत मजदूरी एवं खेती कर अपने परिवार का लालन-पालन कर रहा था। परिवार के विवाहित पुत्र एवं माँ ने मिलकर कुछ जमीन पर खेती की थी। एक तो फसल कम हुई और जो थोड़ी बहुत फसल हुई थी, उसे घर लाए और उसका बँटवारा करने लगे। बँटवारे के दौरान एक पुत्र को लगा कि उसे 10 किलो धान कम मिला है। छोटे पुत्र की पत्नी ने अपने पति को यह बताया कि उसकी माँ ने शायद बँटवारे में कुछ गलती की है और उसके हिस्से के 10 किलो धान कम दिए हैं।
इस बात को लेकर पुत्र अपनी माँ से मतभेद करने लगा और धीरे-धीरे बात इतनी बढ़ गई कि उसने अपनी माँ को अपशब्द कहने शुरू कर दिए। माँ ने भी गुस्से में पुत्र को कुछ भला-बुरा कह दिया, जिससे पुत्र को बहुत बुरा लगा।
पुत्र ने अपनी माँ की बातों का बुरा मानकर अपना जीवन समाप्त करने का निर्णय लिया। उसने अपनी पत्नी से शराब की बोतल मंगवाई और उसमें जहर मिलाकर पी गया। जब जहर का असर बढ़ने लगा और उसे बेचैनी होने लगी, तब उसने अपने परिवार को बताया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। गाँव में प्रारंभिक चिकित्सा सुविधाएँ न होने के कारण उसे नजदीकी अस्पताल ले जाया गया, लेकिन वहाँ पहुँचने तक उसकी मृत्यु हो गई।
इस घटना के बाद, समाज में व्याप्त मृत्युभोज की कुप्रथा का केंद्र बिंदु शुरू होता है। जिस पुत्र ने 10 किलो धान के लिए अपने प्राण त्याग दिए, उसके अंतिम संस्कार के बाद समाज में अपनी नाक बचाने के लिए मृत्युभोज का आयोजन किया गया। इस मृत्युभोज में 250 किलो चावल और 30 किलो उड़द दाल तथा अन्य सामग्री सहित हजारों रुपये खर्च होने थे।
समाज में कुप्रथा का अंत :-
गाँव में एक कुप्रथा थी जिसमें किसी भी मृत्यु के बाद गाँव के बिरादरी के व्यक्तियों को मृत्युभोज दिए जाने की परंपरा थी, चाहे आदमी गरीब हो या अमीर। चाहे किसी के पास मृत्युभोज की व्यवस्था हो या न हो, यह एक सामाजिक और परंपरागत व्यवस्था थी। लेखक इसी ग्राम के निवासी हैं। प्रारंभिक शिक्षा इसी ग्राम से प्राप्त करने के बाद, उच्च शिक्षा विभिन्न शहरों से प्राप्त की और फिर एक सरकारी सेवा में आए। जब उन्होंने अपने गाँव में मृत्युभोज जैसी कुप्रथा देखी, तो इसे समाप्त करने का निर्णय लिया।
उन्होंने समाज के बुजुर्ग व्यक्तियों और संपन्न व्यक्तियों से विचार-विमर्श करने के उपरांत उनकी राय जानी और इस कुप्रथा को समाप्त करने के संबंध में विचार व्यक्त किए। लोग इस कथन से सहमत हो गए और अंततः ग्राम में यह निर्णय लिया गया कि सबकी सहमति से भविष्य में अब कोई मृत्युभोज नहीं होगा। अर्थात यदि कोई व्यक्ति, चाहे वह जवान हो या बुजुर्ग, की मृत्यु हो जाती है, तो इस परंपरागत और कुप्रथा को नहीं अपनाया जाएगा।
मृत्युभोज में चूंकि ग्राम बड़ा था और लगभग 300-400 व्यक्ति उस मृत्युभोज में खाना खाने के लिए आते थे, जिस पर हजारों रुपये खर्च होते थे। इस परंपरागत कुप्रथा के अंत से लोगों में सामाजिक चेतना जगी और इस कुप्रथा का अंत हुआ।
सामाजिक कुप्रथा के समाधान :-
1. शिक्षा और जनजागरण: लोगों को शिक्षित करना और जागरूक बनाना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। उन्हें समझाना होगा कि मृत्युभोज की प्रथा केवल आर्थिक बोझ नहीं बल्कि समाज की एक कुरीति है। इसके लिए सामुदायिक कार्यक्रम, नुक्कड़ नाटक, और जागरूकता अभियानों का आयोजन किया जा सकता है।
2. सामूहिक निर्णय: गाँव के बड़े-बुजुर्ग और प्रमुख लोग एक साथ मिलकर सामूहिक निर्णय ले सकते हैं कि इस कुप्रथा को बंद किया जाए। सामाजिक दबाव और सहमति से ही इस प्रथा का अंत हो सकता है।
3. वैकल्पिक उपाय: मृत्युभोज के बजाय, उन पैसों का उपयोग गाँव के विकास कार्यों में किया जा सकता है। जैसे, विद्यालय, अस्पताल, या जल आपूर्ति की व्यवस्था करना। इससे समाज के सभी लोगों को लाभ मिलेगा।
4. सकारात्मक उदाहरण: जो लोग इस कुप्रथा का बहिष्कार करते हैं, उन्हें समाज में सम्मानित किया जाना चाहिए ताकि अन्य लोग भी उनसे प्रेरणा लें।
5. सहायता समूह: ऐसे समूह बनाए जाएं जो गरीब परिवारों की मदद करें और उन्हें आवश्यक आर्थिक सहायता प्रदान करें ताकि वे इस कुप्रथा का विरोध कर सकें।
इस प्रकार, अन्य गाँवों में भी इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए इसी तरह के प्रयास किए जा सकते हैं। समाज में जागरूकता और शिक्षा के माध्यम से हम इस कुप्रथा का अंत कर सकते हैं और एक स्वस्थ और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकते हैं।
माता-पिता और बच्चों के संस्कार:-
माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश करते हैं, उन्हें पढ़ाते-लिखाते हैं और उनकी इच्छाओं का सम्मान करते हैं। यदि किसी बात पर माता-पिता कुछ कठोर शब्द कह भी देते हैं, तो बच्चों को संयम रखना चाहिए। समाज में इतनी संवेदनशीलता होनी चाहिए कि बच्चों को अपने गुस्से पर नियंत्रण रखना चाहिए और ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे उनके परिवार के सदस्य आजीवन उस कष्ट को झेलते रहें।
उदाहरण के लिए, यदि किसी माता-पिता ने अपने बच्चे को किसी गलती के लिए डांट दिया, तो बच्चे को यह समझना चाहिए कि यह उनके भले के लिए है। माता-पिता का उद्देश्य हमेशा अपने बच्चों का भला करना होता है, और बच्चों को इसे समझकर संयमित रहना चाहिए। माता-पिता को इतना हक जरूर होना चाहिए कि वे अपने बच्चों को सही और गलत का भेद बता सकें।
इस प्रकार, अन्य गाँवों में भी इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए इसी तरह के प्रयास किए जा सकते हैं। समाज में जागरूकता और शिक्षा के माध्यम से हम इस कुप्रथा का अंत कर सकते हैं और एक स्वस्थ और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकते हैं।
लेखक: भूपेंद्र कुमार, ग्रेटर नोएडा, जनपद गौतमबुद्धनगर